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संकरी सी गली से लोगों के दिल तक पहुचने का रास्ता है ये...अपने आप के बारे में कहना सबसे मुश्किल काम होता है... ये आप सब पर छोडती हूँ...

Friday, 20 February 2015

कौन जान पायेगा उसे

मैंने तो कभी सोचा न था
पुरुषार्थी हाथ पहुंचेंगे किसी दिन
उन धवल शिखरों तक
जहाँ से होकर
ब्रह्माण्ड का रहस्य जाने के लिए
जाने कितने तूफ़ान उठेंगे
कौन जान पाएगा उसे

कल-कल करती नदियां बहती है कविता बनकर
राग-रागिनियों और शब्दों का तिलस्म मिलकर
गढ़ते हैं किस्से कह कहकर
वो देखो
भाषा की दीवार पर विश्वास मानव का
कौन जान पाएगा उसे

सिन्दूरी रंग सा स्पर्श तुम्हारा लेकर
सूरज का यूँ छपाक से
दूर झील में समा जाना
एक बिम्ब सताता है रह रहकर
की क्यों कंकड़ फेंकने से झील का
पानी उछलता है कांप कर
कौन जान पाएगा उसे 

Sunday, 15 February 2015

नारी

जलते वक़्त की सड़क पर
नंगे पाँव
दूर तक चलती रही
लहू से भरे छाले
फूटते रहे तलवों में

नव वधू से निशान
बनाती हुई मैं
पहुंची आँगन तेरे
आ मेरी किस्मत
अब तो शगुन कर मेरा
तिलक लगा
नज़रें उतार
बधार* ले मुझे
कब से दहलीज़ पर
खड़ी हूँ तेरे
आ मेरी किस्मत

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बधारना - नयी दुल्हन को दहलीज़ पार कराने की एक रस्म 

Thursday, 12 February 2015

कान्हा

आओ न किसी दिन
यमुना किनारे
कभी किसी बड़
या पीपल पर चढ़ें
कोई पीला सा आँचल
क्यूँ नहीं देते सौगात में
मुझे भी
दूर-दूर चलें चारागाहों में
खेलें मिलकर दोनों
मीठा सा राग
क्यूँ नहीं सुनाते मुझे
कभी तो सताओ
कभी तो मटकी फोड़ो
चुरा लो मक्खन कभी तो
कान्हा कहाँ हो तुम
आओ न
रास लीला करो
कभी मेरे साथ भी