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संकरी सी गली से लोगों के दिल तक पहुचने का रास्ता है ये...अपने आप के बारे में कहना सबसे मुश्किल काम होता है... ये आप सब पर छोडती हूँ...

Monday, 31 August 2015

अमृता प्रीतम

वक़्त से परे
रूह के करीब
बहती रहूंगी रगों में तुम्हारी
बनकर नज़्म या ग़ज़ल कोई
और आती रहूंगी
तुम्हारे एहसासों के कागज़ पर
आंसुओं की कलम से
भीड़ में कहीं
कहीं तन्हाई में
चूमती रहूंगी लब तुम्हारे
बेवज़ह सी मुस्कान बनकर

रोज़ शाम सी तुम्हारे छत पे मिलूंगी
रात भर टिमटिमाऊँगी फलक पर
रूखी सी सुबह की पहली चाय का स्वाद
बनकर उतरूंगी गले में कभी
तो उभरूंगी कभी तुम्हारे माथे का शिकन बनकर

कोई उलझन सी कभी
तो कभी किसी सवाल और उसी  का जवाब सी
वहीँ कहीं बेतुकी दलील सी
मिलूंगी तुम्हे
तुम्हारे ही वहम् सी रहूंगी
सदा वज़ूद में तुम्हारे
बातों में महकते इश्क़ की खुशबू सी
महोब्बत के रंगो सी
शीतल पानी में परछाई बनकर
तो सर्द बर्फीली रातों में
अलाव बनकर कभी तुम्हारी हथेली में
गर्माहट सी महसूस होउंगी तुम्हे

तपती सी दुपहरी में
कहीं किसी सड़क के किनारे
किसी गुलमोहर सी
वही लाल पीला बिछौना लिए
पुकार लूंगी तुम्हे
थके से माथे पर तुम्हारे
पलकें फिरा दूंगी अपनी
सीने पर अपने सिरहाने बनाउंगी तुम्हारा
फिर उसी संकरी सी गली में
मिलूंगी तुम्हे
तेरी आँख से मेरे दिल तक जो पहुँचती है
वही ज़ज़्बात की खिड़कियों के
किवाड़ों की ओट में
जुगनुओं के साथ उड़ती मिलूंगी

कभी किसी तितली के पंख में
नज़र आउंगी

किसी रोशनदान से आती
पागल किरण सी
आँगन  में तनी पर लहराते
किसी आँचल में मिलूंगी
किसी चूड़ी की खनक में सुनाई दूंगी
तो कभी उड़ती ज़ुल्फ़ों में महकूंगी
हर पल, हर सांस में
साथ होउंगी
रोज़ मिलूंगी
आँख की कोर में कहीं
दूर नहीं हूँ मैं तुमसे
नाराज़ नहीं हूँ

इस वक़्त से परे
रूह के करीब
लहू के साथ बहती रहूंगी
फिर मिलूंगी तुम्हे
किसी रोज़