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संकरी सी गली से लोगों के दिल तक पहुचने का रास्ता है ये...अपने आप के बारे में कहना सबसे मुश्किल काम होता है... ये आप सब पर छोडती हूँ...

Friday, 13 March 2015

सौदा

चलो हम ये दुनिया बेच दें
खरीद ले बदले में
वो चांदनी की रात
बुने रेशम की एक चादर
लगाए किस्मत की छत पर
सफेद बिछौना
ज़ख्मों का एक तकिया भरें
तकिया वो मेरे सिरहाने रहे
तुम मेरे सीने पे
सर रख कर सो जाओ
तो ज़ख्मों की चुभन कहाँ होगी
तेरे मेरे दर्द का
एक चकोर खाने वाला
कम्बल बुनें
एक टुकड़ा दर्द तेरा
एक टुकड़ा मेरा
चकोर खानों में दर्द भरें
एक खाना तेरा
एक खाना मेरा
ओढ़कर सो जाएं दोनों
आ मर्ज़ी का सौदा करें
ये दुनिया आज बेच दें 

हरियाणा

गाँव भर में
चर्चा है
वो भाग गयी
बदचलन थी
कई दिनों से लक्षण ठीक नहीं थे
मटक मटक कर चलती
ओढ़नी कभी सर पे नहीं रखती
कुल को डुबो गयी

आकर देखे कोई अब
तीन हफ़्तों से
मिट्टी-तले सो रही है
कहाँ गयी
यहीं तो है

वो यादें

वो मुस्कुराहटें, वो खिलखिलाहटें
दबे पाऊँ की वो आहटें
कुछ अनकही शिकायतें
होती हूँ अकेली तो साथ होती है
हर बात में तुम्हारी बात होती है

रतजगे वो आँखों में, वो सन्नाटे बातों में
सुरमई साँझ की अठखेलियां
याद आती हैं
मुझको मुझसे छीन जाती हैं

नम हाथों की वो तपिश
चारों पहर की कशिश
मिलने के बाद मिलन की ख्वाहिश
झकझोर जाती है
होती हूँ अकेली तो साथ होती है
हर बात में तुम्हारी बात होती है


दिल को नश्तर सा बींध जाती है 
मुलाक़ात वो आखिरी मौत सी 
आँखों में पिघलती वो ज्योत सी 
कोंच जाती है 
होती हूँ अकेली तो साथ होती है
हर बात में तुम्हारी बात होती है 

Thursday, 12 March 2015

खामोश शहर

दौड़ता-भागता
चिल्लाता सा ये शहर
खामोश है आज
उदास है
तुम्हारे जाने से
रूठा है शायद
कितनी दफे कहा है मैंने
कि बातें करो मुझसे
अकेली हूँ आज
मगर नहीं करता
किसी ज़िद्दी बच्चे सा
होंठ लटकाये हुए है
बोलता ही नहीं कुछ

कहा मैंने
कि चिल्लाओ न
चिल्लाते क्यों नहीं
कहाँ गयीं तुम्हारी आवाज़ें
टीं-टीं, पी-पी
घर्रर्र-घर्रर सी वो हज़ारों आवाज़ें
जो हर रोज़
परेशान करती है मुझे
मगर उसने कुछ नहीं कहा

मेट्रो भी
अजीब सी खाली थी आज
तुम्हे छोड़कर
रोती सी लौटी मेरे साथ

आज बहुत जल्दी सो भी गया
ये शहर
वरना सोता कहाँ था
रात भर खेलता था
साथ हमारे

सड़कों की .... थीं
बिजली के खम्भों पे
रोज़ नयी
कच्चे…… थे हम
आज कोई खेल नहीं
सब खाली है

सुना है चुप है आज
अँधेरा है
अंदर भी, बाहर भी

सोने जा रही हूँ
मगर इस ख़ामोशी में
नींद भी आने से
डर रही है
क्या करूँ?
बोलो न !


Sunday, 1 March 2015

ऐसा होगा क्या कभी

वो सहर होगी क्या कभी
जब कौमें
अपने काफिले छोड़
इंसानों से हाथ मिलाएगी
कबीले होंगे क्या कभी
चाहतों के

क्या मोहब्बत
मंदिरों की घंटियों
या
मस्जिदों के नमाज़ों में
सुनाई देगा किसी दिन

क्या हम खदेड़ पाएंगे
मज़हबों को
किसी रोज़
कह्कशाओं से पर
जहाँ न आरती सुनाई दे
न अज़ान का भ्रम हो

क्या ऐसा होगा
कि
मोहब्बत-ओ-इंसानियत की
फ़तह हो

ऐसा होगा क्या कभी