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संकरी सी गली से लोगों के दिल तक पहुचने का रास्ता है ये...अपने आप के बारे में कहना सबसे मुश्किल काम होता है... ये आप सब पर छोडती हूँ...

Friday, 24 July 2015

गुलमोहर

रोज़ शाम की तरह
तेरी यादों की टोली
लौट आई
आज फिर
बैठी रही घंटो तक
सीढ़ियों पर मेरे घर की

मैंने पूछा ,कहाँ थी
आज दिन भर
बोली वहीँ

वही मौसम है
हम भी वही हैं
और तुम भी
गिरे हैं फिर से
पूरे शहर में

गुलमोहर के फूल 

Monday, 20 July 2015

सेवइयां पक गयी हैं

सेवइयां खाने का
मन करता है
कब हारे में रखी
हांडी उतरेगी
कब माँ
सेवइयां परोसेगी
घंटे भर से
थाली लिए खड़ी हूँ
पहले धुंआ गहरा था
आँखों में चुभता था
खारा था बहुत
अब हल्का है
झीना है
खुशबू आती है धुंए से
गुर-गुर-गुर की आवाज़ें
आने लगी है माँ
हांडी उतार लो
सेवइयां पक गयी हैं 

Tuesday, 14 July 2015

मोहब्बत का घर

याद रहे
चाहतों का ये शहर
ख़्वाबों का मोहल्ला
इश्क़ की गली
और कच्चा मकां मोहब्बत का
जो हमारा है
खुशबुओं की दीवारें हैं जहाँ
एहसासों की छतें
हंसी और आंसूओं से
लिपा-पुता आँगन
हरा-भरा
गहरी छाँव वाला
प्यार का एक पेड़ है जहां

किस्सों के चौके में
बातों के कुछ बर्तन
औंधे हैं शर्मीले से
तो कुछ सीधे मुस्कुराते हुए


शिकायतों के धुंए से
काले कुछ बर्तन
हमारा मुँह ताकते हैं
कि क्यों नहीं उन्हें साफ़ किया
रगड़कर हमने

भीतर एक ट्रंक भी है
लम्हों से भरा
रेशमी चादरों में
यादों की सलवटें हैं
आले में जलता चिराग़
वो खूंटियों पर लटकते
दो जिस्म
जंगलों और खिड़कियों से
झांकती चाहतें हमारी
दरवाज़े की चौखट से
टपकती हुई
बरसात की पागल बूँदें कुछ
हवा के कुछ झोंके

और न जाने क्या क्या
सब बिक जाएगा इक दिन
समाज के हाथों
रिवाज़ें बोलियाँ लगाएंगी
ज़ात भाव बढ़ाएगी अपना
और खरीद लेंगे
जनम के जमींदार
वो मकां हमारा