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संकरी सी गली से लोगों के दिल तक पहुचने का रास्ता है ये...अपने आप के बारे में कहना सबसे मुश्किल काम होता है... ये आप सब पर छोडती हूँ...

Wednesday, 27 April 2016

मुसाफिर बनें

बहुत हुआ मेट्रो का सफर
चल अब 
पुरानी दिल्ली की 
भीड़ी गलियों से परे 
नयी दिल्ली की
चौड़ी सड़कों से परे 
चल कहीं 
किसी अज़नबी शहर 
या फिर किसी गांव 
नहीं तो 
किसी पहाड़ी बस्ती 
किसी अज़नबी राह पर 
चल पैदल चलें कुछ दूर 
न कुछ कहें 
न कुछ पूछें 
सिर्फ सुने आँखों से 

इस भीड़ की तन्हाइयों से निकलकर 
ले चलें अपनी तन्हायों को 
जेबों में भरकर 
सवालों के किवाड़ तोड़ें 
निकलें रिवाज़ों के खंडहरों से 
हम यूँ ही साथ चलें 
चल पैदल चलें कुछ दूर 
न कुछ कहें न पूछें 
सिर्फ सुने  आँखों से 

तुम अपनी टूटी नाव का 
ज़िक्र न करो 
मैं भी अपना जलता झोपड़ा 
भूल जाऊं 
तुम कौन हो 
मेरा गोत्र क्या है 
धर्म की दीवार से 
कटीली तारें हटाकर 
बस रहने दें 
इन बातों को 
अपनों से परे  
न कोई रस्म निभाएं 
न वचन कोई 
न ही बंधन हो न नाम कोई 
चल बेनाम रिश्ता निभाएं 

तुम भी मुशफिर रहो 
मैं भी मुशफिर रहूँ 
चल कुछ दूर यूँ ही चलें 
हाथ पकडे 
न कुछ कहें न पूछें 
सिर्फ सुने आँखों से