बहुत हुआ मेट्रो का सफर
चल अब
पुरानी दिल्ली की
भीड़ी गलियों से परे
नयी दिल्ली की
चौड़ी सड़कों से परे
चल कहीं
किसी अज़नबी शहर
या फिर किसी गांव
नहीं तो
किसी पहाड़ी बस्ती
किसी अज़नबी राह पर
चल पैदल चलें कुछ दूर
न कुछ कहें
न कुछ पूछें
सिर्फ सुने आँखों से
इस भीड़ की तन्हाइयों से निकलकर
ले चलें अपनी तन्हायों को
जेबों में भरकर
सवालों के किवाड़ तोड़ें
निकलें रिवाज़ों के खंडहरों से
हम यूँ ही साथ चलें
चल पैदल चलें कुछ दूर
न कुछ कहें न पूछें
सिर्फ सुने आँखों से
तुम अपनी टूटी नाव का
ज़िक्र न करो
मैं भी अपना जलता झोपड़ा
भूल जाऊं
तुम कौन हो
मेरा गोत्र क्या है
धर्म की दीवार से
कटीली तारें हटाकर
बस रहने दें
इन बातों को
अपनों से परे
न कोई रस्म निभाएं
न वचन कोई
न ही बंधन हो न नाम कोई
चल बेनाम रिश्ता निभाएं
तुम भी मुशफिर रहो
मैं भी मुशफिर रहूँ
चल कुछ दूर यूँ ही चलें
हाथ पकडे
न कुछ कहें न पूछें
सिर्फ सुने आँखों से