नज़्म ...................
एक नज़्म है
कुछ कुछ मुझसी
अश'आर बिखरे बिखरे
उलझे उलझे
कई कई मानी लिए
घुंघराले से हुए जाते है
मेरे गेसुओं से
उन्वान जैसे
वज़ूद में ना हो
मिसरा दर मिसरा
बेवजह बेमलब बेमानी
देखो किस तरह
हर्फ़ दर हर्फ़
अश्क़ अश्क़
आरस्तगी
तुमको जाज़िबियात में लिए जाता है
मगर ये
नामुकम्मल है
जब तक तुम
अपनी तहारत की मुहर
न लगा दो
जैसे मै अधूरी हूँ
तुम्हारे इस्म बिना
कुछ कुछ मुझसी
अश'आर बिखरे बिखरे
उलझे उलझे
कई कई मानी लिए
घुंघराले से हुए जाते है
मेरे गेसुओं से
उन्वान जैसे
वज़ूद में ना हो
मिसरा दर मिसरा
बेवजह बेमलब बेमानी
देखो किस तरह
हर्फ़ दर हर्फ़
अश्क़ अश्क़
आरस्तगी
तुमको जाज़िबियात में लिए जाता है
मगर ये
नामुकम्मल है
जब तक तुम
अपनी तहारत की मुहर
न लगा दो
जैसे मै अधूरी हूँ
तुम्हारे इस्म बिना