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संकरी सी गली से लोगों के दिल तक पहुचने का रास्ता है ये...अपने आप के बारे में कहना सबसे मुश्किल काम होता है... ये आप सब पर छोडती हूँ...

Wednesday, 12 July 2017

चाँद-२

चाँद
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मीलों पसरा ये
नीला  रेगिस्तान 
यादों की तपन से 
तपती ये रात 
इस राह में बिछे 
ये लाखों करोड़ो अंगारे 
धुंधलाती आँखें 
सूखा गला 
और कोसो दूर
एक कुआं 
 ठंढे पानी से भरा 
मीठा होगा शायद 
कुएं के चारो तरफ 
शीलन है
दूर से दिखाई पड़ता है 
नीले रेगिस्तान में 
उसकी शीलन 
फ़ैली है 

चाँद बहुत दूर है न  

क्षणिका-2

औरत
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बड़ा ही मासूम है तू
न जाने क्यों
एक जलती अंगीठी के
ठंढे होने के इंतज़ार में
अपनी पीठ
जला रहा है

साया

साया
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सांवला सा इक साया
गीली लकड़ियों के धुंए सा
साया घूमता रहता है
पूर्णिमा की रात में
मेरा हाथ थामे
कुछ कहता नहीं
बोलता ही नहीं कमबख्त
बस एक दुधिया कोहरे के
तावीज़ में घेरे रहता है मुझे
कितनी बार झगड़ लेती हूँ
रूठ जाती हूँ
देखती तक नहीं
उसकी तरफ
मगर बड़ा ढीठ है
मुस्कुरा देता है और बाँध कर चालबाजियों में
ले जाता है मुझे
फिर उसी ख्वाबी  शिकारे पर
जिंदगी की झील के बीचों बीच
अकेले में
जिस्म झील के किनारे
छटपटाकर गिर पड़ता है
कई बार देखा है मुड़कर मैंने
पड़ा ही रहता है
हिलता तक नहीं
मैं शिकारे में सवार
उस सावले से साए का
हाथ थामे
जाने कहाँ जाती हूँ
गुम रहती हूँ घंटों
और लौट आती हूँ
वो साया जाने कब
शिकारे से उतार मुझे
लौट जाता है कोहरे में
जिस्म उठा ही रही होती हूँ
चिड़िया चहचहाने लगती है
वो लाल गुबारा
आ जाता है खिड़की पर
आँख खुल जाती है  

क्षणिका-1

मर्द
कितनी पट्टियां
लपेट दी हैं
जख्मों पे मेरे तूने
अब ज़रा पट्टियों पे
चमड़ी भी आये
तो तसल्ली हो 

दर्द

दर्द
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इक बीमार रिश्ता
देखा है 
रिवाज़ों के फोड़े हैं 
पूरे बदन पर 
कुछ सूख चुके हैं 
और कुछ ताज़ा हैं अभी 

Tuesday, 18 April 2017

तुम और जिंदगी

तितलियों के रंग से
जुगनुओं की चमक से
हसीन
तेरी हंसी है
चाँद सी चंचल
शाम सी कोमल
और रगों में दौड़ती लहू सा
तेज़ है तेरी रूह में
तू है तो
मेरी सुस्त जिंदगी
खिलखिलाती है
तू है तो
संगीत है, मोहब्बत है
वफ़ा भी तुझी से
इश्क भी तू है
रहे इसी तरह
तू मुझमे सदा
जिंदगी में मेरी
हंसती, खेलती, खिलखिलाती
तो शायद मैं जिंदा रहूँ
नहीं तो
जीवन कहाँ है इस देह में  

तुम और तुम्हारा चाँद

कल रात जब तुम
चाँद को देख रहे थे 
और मुझे भी 
कहा था तुमने 
देखो चाँद को 
जी तो बहुत चाहा 
पर मैं 
बिस्तर से उठी नहीं 
डर  गयी थी 
वो भी तुम्हारी तरह 
दूर रहता है मुझसे 
कैसे कहूँ कि 
मैं चाहती हूँ 
तुम और तुम्हारा ये चाँद 
उतर आओ आँगन मेरे 
नहीं तो 
न दिखो मुझे 
सुई से चुभते हो दोनों आँखों में 

किवाड़

तीन पोड़ियाँ
गुलमेख और फूली वाली वासर 
दादी माँ की चूड़ियों सी 
हैंडल 
बड़ी सी सांकल 

दो खिड़कियां 
एक बंद एक खुली 
गहने थे किवाड़ों के 

दो स्तम्भ 
दो आले 
दो चराग 
पहरेदार थे 
कान्हा, मोर, गाय 
दूर से ही राह देखते 
कल एक तोरण लगा 
और ये द्वार बंद है 
उस फंखुरी के लिए 
जो रोज़ सुबह 
भार झाड़ कर 
साफ़ करती द्वार 
गली से गुज़रते 
हर शख्स, गाड़ी 
कुत्ते,बिल्ली के लिए 
स्वागत में 











और तुम

बैचैनी का आलम
रात की गहराइयाँ
सुरमयी तन्हाईयाँ
चांदी से दिन
चमकती सुनहरी रातें
महकते अरमान
मखमली एहसास
गुलाबी खुशबुएँ
कच्चे रास्तों पर
पीले फूल
हरी चूड़ियाँ
झीलों के किनारे
चाँद की परछाइयाँ
खामोशी की शरारतें

और तुम 

रात बहुत रोई है आज

देर से सहमी सी
डरी सी
दुबके बैठी है
तड़फ के बरस पड़ी
घंटो बरस कर
बहा के खारा पानी
आँखों से
ये रात अपनी कहानियां
सुनाती रही मुझे
खामोश है अब
सुबक रही है
सुन रही हूँ मैं
सिसकियाँ उसकी

कन्धा गीला है मेरा 
उसकी आंसुओं से 
मेरे कंधे पर 
सर रख कर सोयी है ये रात 
गरम  पानी से मेरे जख्मों को 
सेंका है 
ये रात बहुत रोई है आज 

हवा के हाथ में खंजर

नरम, मखमली, शीतल
तेरे स्पर्श सी कोमल
नीली चुनरी ओढ़े
बच्चे की जुबां सी लड़खड़ाती
ये जो हवा है न
मुझे ढूंढती रहती है
कोनो में घर के
कभी खिड़कियों के
पर्दों से पूछती है
किवाड़ों से कभी
कभी तनियों पे झूलते कपड़ो से
सहतूत के पत्तों से कभी
और हाथ में खंजर लिए
आती है
मेरे पलकों से
होठों तक
गर्दन तक
खंजर घुमा जाती है
रोज़ क़त्ल करती मुझे
ये हवा जो है
तुझ सी ही है

लम्हों की मैयत

टिमटिमाती ये रौशनी
डबडबाती आँखें
टप टप गले से टपकता दर्द
गड गड गरजते बादल
सर सर सरकती ज़हरीली हवा
घिसटता दिल मेरा
और बेबस से तुम
किसी बेवा सा वो लाल किला
गुनाहगार सा चांदनी चौक
उनकी मैयत में शरीक हम

हसीं लम्हों की ये मैयत
जो हम मनाते हैं
न तुम मुस्कुराओ न मैं
दोनों को खुशगवारियत
पसंद कहाँ आती है  

अक्स

बहती रही कई देर तक
कल वाली रात
देर तक सुना
आसमान की आहटों को
लम्हों की धाराएं
यादों के झुरमुट स
बहकर
रात के पहाड़ से
नीचे सुबह तक
बहती रही
वहां तल में
दो झीलें हैं
गहरी, बहुत गहरी

देखती हूँ
कुछ पल तो
खुद का ही अक्स
नज़र आता है
तुम्हारी आँखों में  
मैं छलनी हूँ
सैंकड़ों सुराख़ है जिस्म में,
वक्त की धार लगातार गुज़र रही हैं मुझसे
चाहू तो भी प्रेम को नही रोक पाती
हाँ, कुछ ताज़ुबों के कंकड़,
अनुभवों के कुछ शंख,
गुनाहों की मासूम सीपियाँ कुछ,
इक्कठा कर लिये हैं उसको पाने की कोशिश में
भूल जाती हूँ मैं
कि प्रेम तो तरल है
उसको छान नही सकते,
वक़त से जुदा नही कर सकते
बस जी सकते
महसूस कर सकते हैं
छू सकते हैं
पकड़ नही सकते
मगर मैं उसकी की खुमारी में
नाकाम उम्मीद लिए रहती हूँ
तमाम ख़्वाबों की आँखें 
अधूरे फ़साने के आख़िरी गीत को 
तुम्हारी आँखों से सुनना चाहेंगी 
दर्द फर्सुदा रातों के ज़र्द चेहरे 
तुम्हारी परछाइयों में पनाह ढूंढेगें
रौशनी सारी दफन
किसी कांच की मोटी दीवार में रहेगी
उम्मीदों के जनाज़े रोज उठेंगे
चीख़ों के हल्क से जबानें खींच ली जाएगी
आहों के कद काटवा दिये जाएंगे
तुम्हें पुकारुंगी भी तो कैसे
मगर ताउम्र ये नज़रें तुम्हे ढूंढेंगी